जितेन्द्र द्विवेदी
अन्तराष्ट्रीय मंचों पर प्राय: विकसित और विकासशील देशों के बीच मूलत: वाद-विवाद का विषय बनकर रह गयी, जलवायु-परिवर्तन की चुनौती भले ही रोजमर्रा की आजीविका के संघर्ष एवं व्यस्त दिनचर्या मेंलीन लोगों के लिए महज खबर या अकादमिक विषय सामग्री मात्र ही हो, सच्चई तो यह है कि हवा, पानी, वाली इस समस्या से देर-सबेर, कम-ज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होता है । भारत में मौसम बदलाव के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में बाढ व सूखे को देखा जा सकता है । देश का बहुत बड़ा क्षैत्र बाढ की विभीषिका को झेलता आ रहा है । परन्तु विगत दो दशकों से बाढ के स्वरूप, प्रवृत्ति व आवृत्ति में व्यापक परिवर्तन देखा जा रहा है । ऐसे बदलाव के चलते कृषि, स्वास्थ्य जीवन यापन आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और जान-माल, उत्पादकता आदि की क्षति का क्रम बढ़ा है । ऐसा नहीं है कि देश के लिए बाढ़ कोई नई बात है परन्तु मौसम में हो रहे बदलाव के इस प्राकृतिक प्रक्रिया की तीव्रता व स्वरूप को बदल दिया है और बाढ़ की भयावहता आपदा के रूप में दिखाई दे रही हैं । इसमें विशेषकर तेज व त्वरित बाढ का आना, पानी का अधिक दिनों तक रूके रहना तथा लम्बे समय तक जल-जमाव की समस्या समाने आ रही है । मौसम बदलाव का दूसरा प्रमुख सूखे के रूप में देखा जा सकता है । तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तीव्र होने के परिणाम स्वरूप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । मौसम बदलाव के चलते वर्षा समयानुसार नहीं हो रही है और उसकी मात्रा में भी कमी आई है । मिट्टी की जलग्रहण क्षमता का कम होना भी सूखा का एक प्रमुख कारण है । बहुत से क्षेत्र जो पहले उपजाऊ थे आज बंजर हो चले हैं वहाँ की उत्पादकता समाप्त् हो गई है । भारत के संदर्भ में ही हाल के समय में ग्रीन पीस इण्डिया की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि भारत में सर्वाधिक आमदनी वाले वर्ग के एक फीसदी लोग सबसे कम आमदनी वाले ३८ फीसदी लोगों के मुकाबले कार्बन डाई आक्साइड का साढ़े चार गुना ज्यादा उत्सर्जन करते हैं । हाल के बाली सम्मेलन में वनों के कटाव पर विशेष चिन्ता प्रकट की गयी थी । ऐसा अनुमान लगाया है कि ग्रीन हाउस गैसे उत्सर्जन के लिए २० से २५ प्रतिशत के लिए वनों के कटाव उत्तरदायी है । इसलिए वनों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाना चाहिए । हमारे एवं हमारी भावी पीढियों के जीवन को निर्णायक रूप से प्रभावित करने वाली जलवायु-परिवर्तन की समस्या हम सबके लिए चुनौती है । इसका सामना सार्थक एवं प्रभावशाली ढंग से करने के लिए हमें जागरूकता दिखाते हुए सरकारों, अन्तराष्ट्रीय मंचाों पर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करते हुए दबाव बनाना होगा । इस दिशा में हो रहे सरकारी, गैर सरकारी संघटनों के प्रयासों में सहयोग देना होगा । व्यक्तिगत जीवन में भी हम सादगी लाने और बिजली, पानी इंर्धन की बचत की दिशा में कदम उठा सकते हैं । लगातार बढ़ता शहरीकरण जलवायु-परिवर्तन को और बढावा देगा और बढ़ती शहरी जनसंख्या के कारण उपजाऊ भूमि इमारतों के निर्माण हेतु उपयोग हो रही है तथा पेड-पौधों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है । भारत में ही १९५५ से २००० के बीच करीब २-३ लाख हेक्टेअर खेती तथा वन भूमि आवासीय उपयोग में आ चुकी है । भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार मात्र एक डिग्री सेण्टीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में ४० से ५० लाख टन गेहूँ की कम उपज का अनुमान है । इससे प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता कम होगी और खाद्य असुरक्षा तथा कुपोषण बढेगा । यदि जलवायु परिवर्तनों को समय रहते कम करने तथा खाद्यान्न उपलब्धता बढ़ाने हेतु प्रभावी कदम नही उठाये गये तो शहरी गरीबों पर इसका गभीर असर पड़ेगा और कुपोषित बच्चें की संख्या और भी अधिक बढ जाएगी । जलवायु-परिवर्तन के चलते सूखे एवं बाढ में वृद्धि से पानी की उपलब्धता प्रभावित होगी । भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होन वाली स्थितियों पर नियंत्रण से संबंधित योजनाआें पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब ढाई प्रतिशत खर्च करता है जो कि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है । चूँकि जलवायु-परिवर्तन किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है इसलिए इनमें कमी लाने हेतु सभी स्तरों पर ठोस उपायों की जरूरत है । भारत में गैर परम्परागत स्रोतों जैसे सूर्य, जल एवं पवन ऊर्जा की काफी बड़ी संभावना है । पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता में भारत विश्व में चौथे स्थान पर है । इन साधनों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहन से भी वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड को सोखने एवं जलवायु-परिवर्तन को कम करने में काफी सहायता है । चूँकि पुराने वृक्षों में कार्बन डाइ्र आक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए जलवायु-परिवर्तनों के नियंत्रण हेतु प्रत्येक स्तर पर अधिकाधिक वृक्षारोपण को बढावा देने की आवश्यकता है । जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक एवं दूरगामी पभावों के अध्ययन की जरूरत है । कृषि वैज्ञानिक भी यहाँ कमी नहीं हैं, लेकिन कृषि वैज्ञानिक भी अभी जलवायु-परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहे है । इसलिए इस दिश में कोई शोध शुरू नहीं हुआ जबकि हमें इस क्षेत्र में तत्काल दो काम करने चाहिए । एक यह कि जलवायु-परिवर्तन से कृषि चक्र पर क्या फर्क पड रहा है । दूसरा क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसले लगाकर पूरी की जा सकती है । साथ ही हमें ऐसी किस्म की फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु-परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हो-मसलन फसलों की ऐसी किस्मों का ईजाद, जो ज्यादा गरमी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हों । यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जलवायु-परिवर्तन न केवल कृषि के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानव सभ्यता के लिए एक खतरे के रूप में सामने आया है और इसलिए इसे सीमा में बांधना बेईमानी होगी । कोई भी देश इसकी ऑच से बच नहीं सकता । हम इस तथ्य से भी मुँह नहीं मोड सकते कि जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर अब शिखर सम्मेलनों के आयोजन की अपेक्षा जमीनी स्तर पर विचार किया जाना चाहिये । हम यह भी उम्मीद करेंगे कि अगले दो सालों के भीतर दुनिया के समस्त देश इस गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए एकजुट होकर वर्ष २००९ की डेनमार्क में कोेपेन हेगन वार्ता में कोई ऐसा सर्व सम्मत एजेंडा विश्व के समक्ष रखने में समर्थ होंगे जो २०१२ में समाप्त् होने वाले क्योटो प्रोटोकाल का स्थान ले और उसमें विशेष रूप से कृषि पर पडने वाले जलवायु-परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की प्रभावी व्यवस्था भी शामिल हो।